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Saturday 18 July 2015

दुधवा का यह हरा अंचल

पुराने इन दरख्तों के
घने साए में यादें हैं
नहीं मुझसे जुड़ी फिर भी -
ये कहना भी ग़लत होगा
बना है मेरे पैरों से
अभी जो यहां मिट्टी पर
निशाँ मेरी ज़मीं का है
तभी तो बोल उट्ठे हैं
ये पगडंडी के बूटे भी
"अरे तू तो यहीं का है "

ये वनकौए
बहुत कम दीखते हैं
गाँव में मेरे
परिंदे कम हुए जो-जो
उन्हीं में एक ये भी हैं;
बड़े-बूढ़े
यहाँ भी काम पर हैं
ज़माने की हवा में
उड़ चला है सब
कहीं भी जाओ
दु:ख देने की सीमा तक
नया है सब

बहुत कुछ देखना भी है
बहुत कुछ सीखना भी है
बहुत कुछ कर गुज़रना है
बहुत कुछ सोचना भी है
मगर किसके लिए सोचें
किसानी में लगे हैं जो
पढ़ाई में लगे हैं जो
अदब भूले हुए हैं जो
लड़ाई में लगे हैं जो
कि चाहे जिस जतन भी हो
कमाई में लगे हैं जो
अनैतिक कारनामों से 
उगाई में लगे हैं जो
कि दामन की कलौंछों की
धुलाई में लगे हैं जो
तरक्क़ी कर रहे हैं जो
खिंचाई में लगे हैं जो
न झांके गिरेबां में, जग-
हँसाई में लगे हैं जो
यहाँ किसके लिए सोचें
यहाँ कैसा व क्या सोचें
भला सोचें बुरा सोचें
बताओ
पंछियो! वृक्षो! लताओ!
तितलियों! भँवरो! हरिण-चीतो!
रहें ख़ामोश या सोचें
तुम्हारे भी लिए सोचें
तुम्हारे ही लिए सोचें
तुम्हारी ही तरह सोचें
हमें शुभ सोच यह भी दो
तुम्हारे संकटों में हम
तुम्हारे साथ हैं या
दूर से बस देखते हैं
हाथ पर रख हाथ
कह भी दो
बताओ हम कहाँ हैं
ज़हर बनती भीड़ में
दु:ख की तरह हैं
जिस जगह हैं

उधर जो फूल हँसते हैं
कभी बगिया में देखे थे
वही रंग और वही बू-ताज़गी
मिलने गले आए
मेरी आँखों में फिर खिलने लगे
वे कमल पोखर के
वे गुच्छे नीम के
मौसम शिरीषों का वही
पुराना साज़
दिल में छेड़ता-सा लग रहा है
घने आमों की डालों में
हज़ारों फिरकियों के नाच
फिर से पढ़ रहा हूँ मैं
मुझे लगता है जैसे इस
खुले परिवेश में आकर
ख़ुद अपने आप को जैसे
नए से गढ़ रहा हूँ मैं 

बड़ा मनमोहना है
मोहना का यह हरा अंचल
यहाँ आकर बड़ी राहत मिली
दिल ने सुकूं पाया
अचानक पा लिया फिर से
वहाँ जो छोड़कर आया
अभी चलना है सालों !
डा. अवनीश यादव


 
फिर मिलेंगे
ख़ुश मिलेंगे